Wednesday, February 13, 2008

मौड़

और फीर आ ही पहुँछा मौड़।
शुक्र खुदा का,की यहाँ तक तो हमसफ़र थे।
नामालूम फिर कभी ढलते सूरज से लंबी होती परछाइयां तुम्हारी,आ ही गीरें मेरी राह।
जलते जलते, कहीं कोई चींगारी छुटे जैसे,
वैसे ही भीगे आलाव की तपीश सी सजईं हैं तुम्हारी यादें।
इन रास्तों पे राख भी ज्यादा देर मिट्टी नही पकड़ती,
आंखों मे लेकीन चली जाए, उलटी हवा से, तो बहुत देर तक जलन रहती है।
इस ओर कभी चले आओ तो, धूप के चश्मे पहने रहना।

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