यादें भी जूं सी होती हैं
कल तक जब रोजाना बनती टूटती थी , तब् तक दर्द महसूस नही होता था
अब रोज़ टुकडों टुकडों मे पुरानी रीसाईकील होकर मीलती है , तो कीलों सी घुप्ती हैं
लहू रिसते ज्ख्म और लगातार इक पराया एहसास.. नोचता, खाता कम्प्कम्पता एहसास
ख़ुद को वापीस पाने का जूनून या सिर्फ़ थरथराती यादों को नीकाल , फेंक देने की वो वेह्शी चाहत
क्यों सोचकर बसेरा नही बनाती जूं भी
क्या यादों के लीये भी कीसी स्टोर मे "मेडीकर" बीक्ता है?
या इन्हे भी कीसी और से ही निकाल्वाना या ये भी सपनों की तरह ख़ुद ही म्र जाती हैं?
Thursday, February 14, 2008
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