मौड़ आया इक छोटा सा।
हमसफ़र थे हमसाया नही।
जब तक समजे की तनहा ही हैं , सीने से लगकर भी,
वो स्लीव को मौड़, उसमे वक़्त फेंक चुके थे।
क्रीज बिथाई तो थी, पर अरमान कुछ बाहर झांकते से लग रहे थे।
मेरी दूर की नज़र कमजोर है ..शायद आने वाले कल के पल ही पालना झूलते हों...
इक डिबिया यादों की सील करके,तक्रारौं की टेप से,उछाल दी थी आसुऔ की नदी।
जल्द ही पर वो नदी भी सूख गई..उस् डिब्बी को जाने कोन्सी मिटटी मीली।
कीसी संदुकची मे सुर्खी मीले, अगर तुम्हे कोई पुरानी सीलन भरे मुर्दा सपनों की कभी,
तो उसे इक बूँद आंसू की आखरी सौगात दे, मीठी नींद सुला देना।
Wednesday, February 13, 2008
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