कोई ख्वाब खिडकी से दील की , पर्दे पिघले अरमानों के हटा कर,
कुछ झांकता सा है,
कुछ ढ़ृढ़ता सा है.
कोई इंत्ज़ार है जैसे इसे
पता नही कब हो ये लुक छीप पूरी
कब भरें रंग उजले,खाली ओढ़नी पे, इस ख्वाब की.
Saturday, January 26, 2008
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